यूं तेरी यादों की कश्ती है रवां शाम के बाद.
जैसे वीरान जज़ीरे में धुआं शाम के बाद.
चंद लम्हे जो गुजारे थे तेरे साथ कभी
ढूंढ़ता हूं उन्हीं लम्हों के निशां शाम के बाद.
एक-एक करके हरेक जख्म उभर आता है
दिल के जज़्बात भी होते हैं जवां शाम के बाद.
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ग़ज़लगंगा.dg: काटने लगता है अपना ही मकां शाम के बाद:
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और (कुफ़्फ़ार अरब) कहते हैं कि इस (रसूल) पर उसके परवरदिगार की तरफ़ से
मौजिज़े क्यों नही नाजि़ल होते (ऐ रसूल उनसे) कह दो कि मौजिज़े तो बस ख़ुदा ही
के पास हैं और मै तो सिर्फ़ साफ़ साफ़ (अज़ाबे ख़ुदा से) डराने वाला हूँ
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और (कुफ़्फ़ार अरब) कहते हैं कि इस (रसूल) पर उसके परवरदिगार की तरफ़ से
मौजिज़े क्यों नही नाजि़ल होते (ऐ रसूल उनसे) कह दो कि मौजिज़े तो बस ख़ुदा ही
के पास ...
2 comments:
बहुत बढ़िया ।
भाई देवेन्द्र जी-
त्योहारों के बाद सुन्दर गजल पढने को मिली -
शुभकामनायें-
behatarin.....nwinta liye hue prastuti
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